Jharkhand: "लिव-इन में सहमति से बने संबंध दुष्कर्म नहीं, झारखंड हाईकोर्ट का बड़ा फैसला
रांची हाई कोर्ट ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप में सहमति से बने संबंध को दुष्कर्म नहीं माना जा सकता। अदालत ने महिला की दर्ज प्राथमिकी को निरस्त करते हुए कहा कि यह आपसी सहमति का मामला है।

- लिव-इन में 10 साल साथ रहने के बाद की थी एफआइआर
- हाईकोर्ट ने रद्द की प्राथमिकी
रांची। झारखंड हाई कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशीप के मामले में एक बड़ा फैसला सुनाया है। जस्टिस एके चौधरी की कोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि सहमति से बने संबंध को दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने इस निर्देश के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रही महिला की ओर से दर्ज करायी गयी एफआइआर निरस्त कर दी है।
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जस्टिस एके चौधरी की कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि एक्युज्ड और कंप्लेनेंट लगभग 10 वर्षों (2014 से 2023) तक वाइफ-हसबैंड की तरह साथ रहे। इस दौरान सहमति से संबंध बने, जिसे दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता।
महिला ने दर्ज करायी थी दुष्कर्म की एफआइआर
रााजधानी रांची के बुढ़मू पुलिस स्टेशन एरिया में लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही महिला ने साथी पर एफआइआर दर्ज करायी थी। दर्ज एफआइआर में धारा 376 (दुष्कर्म) और 406 (आपराधिक न्यासभंग) आईपीसी के तहत आरोप लगाये गये थे। आरोपित पर तीन लाख रुपये वापस नहीं करने का भी आरोप लगाया था। जिस पर पुलिस ने कार्रवाई करते हुए आरोपित मतीयस सांगा को अरेस्ट कर जेल भेज दिया था। जिसके बाद मतियास सांगा ने हाई कोर्ट में क्रिमिनल रिट याचिका दायर की एफआइआर निरस्त करने का आग्रह किया।
प्रार्थी के अधिवक्ता सूरज किशोर प्रसाद ने दलील देते हुए कहा कि दोनों पक्ष वयस्क हैं। 2014 से 2023 तक वाइफ-हसबैंड की तरह साथ रहते थे। ऐसे में यह मामला आपसी सहमति से बने संबंध का है। वहीं, महिला द्वारा दिया गया तीन लाख रुपये एक दोस्ताना लोन था, जिसे लौटाने में असमर्थता को आपराधिक अपराध नहीं माना जा सकता।सरकार की ओर से अतिरिक्त लोक अभियोजक ने इसका विरोध किया और कहा कि आरोपित के खिलाफ स्पष्ट आरोप हैं, इसलिए मामला खारिज नहीं होना चाहिए।
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय महेश्वर तिग्गा बनाम राज्य झारखंड तथा सोनू उर्फ सुभाष कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के केस का हवाला देते हुए कहा कि दीर्घकालीन शारीरिक संबंध में सहमति स्वतः सिद्ध होती है।झारखंड हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस तरह की आपराधिक कार्रवाई का जारी रहना न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। पूरी प्राथमिकी और उससे जुड़ी कार्यवाही को निरस्त करने का आदेश दिया जाता है।