Shibu Soren : झारखंड की सबसे बड़ी 'पॉलिटिकल फैमिली', आंदोलन से मिली संजीवनी, बन गयी 'दिशोम गुरु' की छवि

शिबू सोरेन ने सिर्फ राजनीति नहीं की, बल्कि एक आंदोलन खड़ा किया। आदिवासी हितों की लड़ाई से उन्होंने झारखंड की सबसे प्रभावशाली राजनीतिक विरासत तैयार की। Threesocieties.com पर पढ़ें पूरा लेख।

Shibu Soren : झारखंड की सबसे बड़ी 'पॉलिटिकल फैमिली', आंदोलन से मिली संजीवनी, बन गयी 'दिशोम गुरु' की छवि
शिबू सोरेन (फाइल फोटो)।

रांची। एकीकृत बिहार के हजारीबाग जिले (अब रामगढ़) के नेमरा गांव में 11 जनवरी 1944 में जन्मे शिबू सोरेन ने अपने संघर्षों से राजनीति में ऊंचा मुकाम हासिल किया। वे दो बार केंद्रीय कोयला मंत्री और तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे। 
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उन्होंने दुमका से आठ बार सांसद और जामा से एक बार विधायक के रूप में प्रतिनिधित्व किया। तीन बार राज्यसभा के सदस्य चुने गये। वर्तमान में वह राज्यसभा के सदस्य ही थे।  38 वर्षों तक झामुमो के केंद्रीय अध्यक्ष रहे बाद में वे संस्थापक संरक्षक बने। अब शिबू सोरेन की जगह अब उनके पुत्र हेमंत सोरेन झामुमो के केंद्रीय अध्यक्ष हैं। 
1995 में बनाया गया था जैक का अध्यक्ष 
वर्ष 1995 में अलग झारखंड राज्य का पहला पड़ाव जैक का अध्यक्ष भी शिबू सोरेन को ही बनाया गया था। यही वजह है कि गुरुजी की छवि झारखंड ही नहीं पूरे देश में एक जननेता के तौर पर स्थापित थी। आदिवासियों के बीच दिशोम गुरु की छवि बनाने वाले शिबू सोरेन महाजनों के द्वारा अपने पिता सोबरन मांझी की हत्या से उद्वेलित होकर महज 13 से 14 वर्ष की आयु में ही महाजनों के खिलाफ आदिवासी, मूलवासी, दलित, पिछड़ों के हक-हकूक व अधिकारों की लड़ाई छेड़ दी थी। यही आंदोलन व संघर्ष से तैयार जमीन आगे चलकर शिबू सोरेन की राजनीतिक थाती बन गयी। अब उनकी पार्टी झामुमो आज झारखंड की सत्ता का नेतृत्व कर रहा है। उनके पुत्र हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री हैं।


अलग झारखंड राज्य के लिए इन्होंने 40 साल तक संघर्ष किये
शिबू सोरेन की विशिष्ट पहचान अलग झारखंड राज्य गठन के साथ गांवों में बसे आदिवासी-मूलवासी, दलित व पिछड़ों की जमीन हथियाने वाले महाजनों के खिलाफ धान कटनी आंदोलनों से जुड़ी है। जल, जंगल और जमीन की लड़ाई और अलग झारखंड राज्य के लिए इन्होंने 40 साल तक संघर्ष किए थे। आंदोलन के दौरान इनका अधिकांश समय जंगलों और पहाड़ों पर गुजरता था। आंदोलन के दौर में हत्या समेत कई संगीन मामलों में आरोपित बनाये गये थे। कानूनी दांव-पेंच में फंसे भी और जेल भी गये लेकिन न्याय पर गहरी आस्था रखने वाले शिबू सोरेन को चाहे चीरुडीह हत्याकांड हो, शशिनाथ झा की हत्या से जुड़ा मामला हो या फिर पीवी नरसिम्हा राव के दौरान सांसद रिश्वत प्रकरण हरेक मामले में इन्हें न्याय मिली थी। 

आंदोलन के दौर में गुरुजी के एक आवाज पर बंद हो जाता था पूरा झारखंड 
चार दशक के आंदोलनों व संघर्षों के दम पर 15 नवंबर 2000 में जब अलग झारखंड राज्य गठन का सेहरा इनके सिर बंधा तो पूरा झारखंड ही नहीं देश ने दिशोम गुरु यानी देश का गुरु के आंदोलन व संघर्ष को सैल्यूट किया था।धुन के पक्के शिबू सोरेन को झारखंड आंदोलन के दौरान गिरफ्तार करने या देखते ही गोली मारने तक का आदेश दिया गया था। इसके बावजूद शिबू सोरेन ने झारखंड आंदोलन को कमजोर नहीं होने दिया। लड़ाई लड़ते चले गये। आंदोलन के दौर में उनकी एक आवाज पर पूरा झारखंड बंद हो जाता था। हजारों लोग सड़कों पर उतर जाते थे। तब अखंड बिहार के झारखंड के विभिन्न हिस्सों में आर्थिक नाकेबंदी से लेकर दिल्ली तक अलग राज्य के लिए आंदोलन की गूंज से केंद्र व बिहार राज्य की सरकारें भी सकते में पड़ जाती थी। 

चार फरवरी वर्ष 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन
समय व जनता के नब्ज को समझने वाले शिबू सोरेन ने आंदोलन के साथ हक व अधिकारों को हासिल करने के लिए राजनीति के क्षेत्र में कदम रखने का ठोस निर्णय विनोद बिहारी महतो और एके राय जैसे मंझे हुए नेताओं से मुलाकात के बाद लिए थे। चार फरवरी वर्ष 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किये थे। इससे ठीक पहले वर्ष 1969 में शिबू सोरेन की पहचान एक सशक्त आंदोलनकारी के अलावा समाज सुधारक के तौर पर जन-जन में हो चुका था। 
शिबू सोरेन सोनत संताली समाज नामक एक संगठन बनाकर आदिवासी समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए जागरूक अभियान चला रहे थे। शराब सेवन पर पाबंदी व शिक्षा को हथियार बनाने के लिए समाज को जागृत कर रहे थे।  इसके लिए इन्होंने धनबाद जिले के टुंडी के पास  पोखरिया में आश्रम का निर्माण किये थे। शिबू सोरेन इसी आश्रम में रहकर आदिवासियों के उत्थान व इन्हें आत्मनिर्भर बनाने, जल संरक्षण, कृषि व शिक्षा को लेकर कई कार्यक्रम चला रहे थे। शिबू सोरेन के यह प्रयोग गांव-गांव में सफल हो रहा था। तब देश के कई प्रमुख अर्थशास्त्री और पत्रकार इन इलाकों का दौरा कर शिबू सोरेन के आर्थिक-समाजिक विकास का मॉडल का अध्ययन करने पहुंचे थे। 
नशा मुक्ति शिक्षा और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया 
शिबू सोरेन ने नशा मुक्ति शिक्षा और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया जिससे लाखों आदिवासियों को प्रेरणा मिली। उन्होंने युवाओं को नौकरी के पीछे भागने की बजाय खेती और पशुपालन अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। शिक्षा को शोषण से मुक्ति का हथियार मानते हुए उन्होंने स्कूलों की स्थापना को बढ़ावा दिया। 1960-70 के  दशक में, जब आदिवासी समाज नशे की चपेट में था, शिबू सोरेन ने नशाबंदी को अपने आंदोलन का मुख्य आधार बनाया। उनकी सभाओं में नशे के दुष्परिणामों का जिक्र प्रमुखता से होता था। वे कहते थे कि नशा आदिवासी समाज को खोखला कर रहा है। यह हमें कमजोर बनाता है, हमारी जमीन और सम्मान छीनता है। उनकी यह अपील केवल शब्दों तक सीमित नहीं थी। उन्होंने गांव-गांव जाकर नशाबंदी के लिए जनजागरण अभियान चलाया।उन्होंने साहूकारों द्वारा नशे को बढ़ावा देने की साजिश को उजागर किया, क्योंकि यह आदिवासियों को आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर करने का हथियार था। नशे के खिलाफ उनकी लड़ाई ने सामाजिक जागरूकता पैदा की, तो आत्मनिर्भरता और शिक्षा पर उनके जोर ने आदिवासियों को अपनी पहचान और सम्मान हासिल करने का रास्ता दिखाया।

नौकरी के पीछे मत भागो
शिबू सोरेन मानते थे कि आदिवासी समाज की असली ताकत उसकी जमीन, संस्कृति और मेहनत में है। अपनी सभाओं में वे युवाओं से अपील करते - नौकरी के पीछे मत भागो। उनका मानना था कि नौकरी की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने से आदिवासी अपनी जड़ों से कट रही है।उन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए पशुपालन और कृषि को बढ़ावा देने पर जोर दिया। उनके इस संदेश ने कई आदिवासी युवाओं को अपनी जमीन पर टिकने और स्वावलंबी बनने के लिए प्रेरित किया।
समाज को सशक्त करने का हथियार है शिक्षा
शिबू सोरेन शिक्षा को सामाजिक उत्थान का सबसे बड़ा हथियार मानते थे। वे कहा करते थे कि शिक्षा ही वह चाबी है, जो आदिवासियों को शोषण से मुक्ति दिला सकती है। उनकी सभाओं में शिक्षा का महत्व बार-बार उभरकर सामने आता था।उन्होंने आदिवासी बच्चों, खासकर लड़कियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया। उनके नेतृत्व में झामुमो ने कई क्षेत्रों में स्कूलों और छात्रावासों की स्थापना को प्रोत्साहित किया। शिबू सोरेन का मानना था कि शिक्षित आदिवासी समाज ही साहूकारों, जमींदारों और शोषक व्यवस्था को चुनौती दे सकता है।जब शिबू सोरेन टुंडी के जंगलों में महाजनों के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे, पूरे क्षेत्र में उनकी समानांतर सरकार चलती थी। तब तत्कालीन स्व. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन पर अंकुश लगाने का आदेश दिया था। जब शिबू सोरेन के कार्यों के बारे में उन्हें जानकारी मिली तो उन्हें मिलने के लिए दिल्ली बुलाया था।आदिवासी हित में काम करने की सलाह दी थी। इसी दौर में शिबू सोरेन सक्रिय राजनीति में भी कदम रखे थे। 
1977 में पहली बार चुनावी राजनीति की शुरुआत 
वर्ष 1977 में पहली बार चुनावी राजनीति की शुरुआत टुंडी विधानसभा से की। उस चुनाव में इन्हें हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद शिबू सोरेन संताल परगना के दुमका लोकसभा को अपना राजनीतिक कर्मभूमि बनाया और पहली बार वर्ष 1980 में यहां से चुनाव लड़ कर कांग्रेस के पृथ्वीचंद किस्कू को हराया और पहली बार दिल्ली पहुंचे थे। इसके बाद शिबू सोरेन कभी पीछे मुड़कर नहीं देखे। वह दुमका सीट से वर्ष1989, 1991, 1996, 2002, 2004, 2009 और 2014 में सांसद चुने गए। इसके अलावा गुरुजी तीन बार राज्यसभा के सदस्य भी रहे। 
शिबू ने नौ वर्ष की उम्र में छोड़ दिया मांस-मछली खाना 
दिशोम गुरु शिबू सोरेन की उम्र नौ वर्ष थी तो उन्हें एक कोयल की मौत से इतना दुख हुआ कि उन्होंने हमेशा के लिए मांस-मछली खाना छोड़ दिया। यह बात वर्ष 1953 की है। कहा जाता है कि दशहरा का दिन था। शिबू अपने पिता सोबरन सोरेन के साथ घर में बैठे थे। घरवालों ने एक कोयल पाल रखी थी जो शिबू के पैर में बार-बार चोंच मार रही थी।उन्हें परेशान देखकर जब उनके पिता ने कोयल को हटाने का प्रयास किया तो इसी क्रम में किसी तरह उसकी मौत हो गयी।इस घटना से शिबू सोरेन इतने दुखी हुए कि वह पूरी तर शाकाहारी बन गये। उन्होंने बांस का खटिया बनाकर और कफन ओढ़ाकर उस कोयल का दाह-संस्कार किया था।
शिबू सोरेन बन गये 'दिशोम गुरु' पिता की हत्या ने बदल दी जिंदगी
रांची। दिशोम गुरु शिबू सोरेन लोगों के बीच हमेशा कहते थे कि जल, जंगल, जमीन हमारा है। हम जंगल-झाड़ में रहने वाले आदिवासी हैं। जब तक आदिवासी हितों की बात नहीं होगी, देश में विकास की बातें करनी बेमानी है। 1996 के लोकसभा में गुरु जी का यह बयान काफी चर्चा में रहा। लेकिन गुरु जी के उक्त बयान के पीछे उनका आंदोलन, जमीनी हकीकत और आदिवासियों पर हो रहे जुल्म की दास्तान थी। जब भी आदिवासी हितों की बात हुई, पूरे देश में गुरु जी का नाम सबसे टॉप पर आया। यही कारण है कि आदिवासियों के बीच में वह दिशोम गुरु बने। दिशोम गुरु का मतलब देश अथवा विश्व का गुरु। धनबाद के टुंडी में महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ चलाये गये धनकटनी आंदोलन में गुरुजी को दिशोम गुरु का नाम मिला।धनकटनी आंदोलन के बाद शिबू सोरेन को दिशोम गुरु की उपाधि मिली। आदिवासी समाज आज भी इन्हें अपने गुरु और देवता की तरह मानते हैं।

शिबू सोरेन के पिता सोबरन मांझी की हत्या के साहूकारों ने कर दी थी। पिता की मौते के समय वह मात्र 13 वर्ष के थे। इसके बाद गुरु जी का आंदोलन शुरू हुआ। रामगढ़ गोला से निकल कर यह हर जगह फैला। टुंडी में उन्होंने साहूकार और महाजनों के खिलाफ सीधा आंदोलन छोड़ दिया। धीरे-धीरे उन्होंने आदिवासी समाज को जागरूक करना सिखाए। सूदखोरी और महाजनी प्रथा के खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट किया। दिनभर शिबू सोरेन और उनके साथी टुंडी के घने जंगलों में रहते।शाम होते ही सभी महाजनों के खेत खलिहान में आ जाते। महाजनों ने जमीन हड़प ली थी। इसके बाद धान और अन्य फसलें काट कर चले जाते। लगातार शोषण से गुरु जी ने आदिवासी समाज को मुक्ति दिलाई थी, यही कारण था कि शिबू सोरेन दिशोम गुरु बन गये। आदिवासी समाज उन्हें अपना सर्वोच्च नेता मानने लगे। 
एके राय और विनोद बाबू का भी मिला
धनबाद में इसी समय दो और महान विभूतियां सामाजिक सुधार और मजदूर हकों की लड़ाई लड़ रहे थे। इसमें एके राय और बिनोद बिहारी महतो (बिनोद बाबू) का भी साथ मिला। तीनों ने मिलकर अलग झारखंड की मांग के लिए लोगों में अलग जगाना शुरू किया। शिबू सोरेन आदिवासी हित, एक के राय मजदूर हित और बिनोद बाबू सामाजिक हितों की लड़ाई लड़ने लगे। धनबाद के चिरागोड़ा (बिनोद बाबू का घर) में चार फरवरी फरवरी 1973 को शिबू सोरेन, एके राय और बिनोद बाबू एकजुट हुए और झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया।धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में एक सभा का आयोजन हुआ और पहली बार शिबू सोरेन जंगलों से निकलकर सार्वजनिक रूप से लोगों के बीच आये।यहीं से महानायक की कहानी शुरू होती है।
आंदोलन का केंद्र बना टुंडी का पोखरिया आश्रम
टुंडी के पोखरिया आश्रम आदिवासी आंदोलन का केंद्र बन गया। यहां 1972 से 1976 के बीच उनका आंदोलन जबरदस्त प्रभावी रहा। महाजनों ने आदिवासियों की जमीन हड़प ली थी। इसमें फसल लगाने लगे थे।शिबू सोरेन की एक आवाज पर हजारों की संख्या में आदिवासी समाज के लोग तीर-धनुष के साथ आंदोलन में जुटते गए। हड़पी गई खेतों में लगी फसल काट ले रहे थे। टुंडी के पोखरिया में आश्रम इसका केंद्र बिंदु था। यहां पर गुरु जी ने आंदोलन के दिन बिताये।आदिवासियों को जागृत किया। आज भी पोखरिया का यह आश्रम आंदोलन का गवाह है। आदिवासी समाज इसे पूजते हैं।
महाजनी प्रथा से झारखंड अलग राज्य आंदोलन का संघर्ष
शिबू सोरेन आदिवासियों के सर्वमान्य नेता थे और उन्होंने अपना पूरा जीवन ही आदिवासी कल्याण के लिए लगा दिया। झारखंड अलग राज्य का संघर्ष उन्होंने किया और तब तक लड़े जबतक कि उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ।संताल आदिवासी शिबू सोरेन का पैतृक निवास रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में है। शिबू सोरेन का जन्म नेमरा में ही 11 जनवरी 1944 को हुआ था। शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन शिक्षक थे।  इलाके में महाजनी प्रथा, सूदखोरी और शराबबंदी के खिलाफ आंदोलन चला रखा था। शिबू सोरेन जब 13 वर्ष के थे तब उनके पिता सोबरन सोरेन की 1957 में हत्या कर दी गई थी। पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन ने साहूकारों और महाजनों के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया। टुंडी प्रखंड के पोखरिया से शिबू सोरेन ने महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था। संताल समाज को जागरूक करने और लोगों को शिक्षित करने के लिए सोनोत संताल समाज का गठन किया। शिबू सोरेन ने आदिवासी समाज को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने और नशे से दूर रखने के लिए काफी प्रयास किए।
महाजनों से आदिवासियों की जमीन मुक्त कराने के प्रयास
1970 के दशक में महाजनों का आतंक कायम था। वे आदिवासी किसानों को अपने ऋण के जाल में फंसा उनसे मनमाना सूद वसूलते थे। सूद ना दे पाने की स्थिति में वे आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर लेते थे। जमीन ही आदिवासियों की जीविका का साधन था। इसलिए शिबू सोरेन ने महाजनों के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए उन जमीनों पर धान काटो अभियान चलाया, जिसे ऋण के बदले में महाजन कब्जाए बैठे थे। इस अभियान के दौरान आदिवासी महिलाएं जमीन से धान काट लेती थीं। धनकटनी के दौरान आदिवासी पुरुष तीर-धनुष लेकर सुरक्षा में तैनात रहते थे। उन्होंने आदिवासियों को सामूहिक खेती और सामूहिक पाठशाला के लिए प्रेरित किया। 
आदिवासियों को एकजुट करने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन
शिबू सोरेन ने आदिवासी अधिकारों को सुरक्षित करने और उन्होंने शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन लोगों को एक मंच पर लाने का काम किया, जो एक ही तरह के कार्यों के लिए अलग-अलग संघर्ष कर रहे थे। एके राय, विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन अलग-अलग बैनर के तले आंदोलन चला रहे थे। चार फरवरी, 1972 को तीनों एक साथ बैठे और सोनोत संताल समाज और शिवाजी समाज का विलय कर ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ नामक नया संगठन बनाने का निर्णय हुआ। इसके बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा (Jharkhand Mukti Marcha- JMM) का गठन हुआ। झामुमो के गठन के साथ ही विनोद बिहारी महतो इसके पहले अध्यक्ष बने।और शिबू सोरेन को महासचिव बनाया गया था।
1977 में राजनीति की ओर किया रुख
झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन के बाद उन्होंने पहली बार 1977 में लोकसभा और टुंडी विधानसभा क्षेत्र का चुनाव लड़ा। लेकिन दोनों ही चुनाव में उन्हें हार मिली। इसके बाद गुरुजी ने संताल परगना का रुख किया। 1980 में दुमका लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर जेएमएम के पहले सांसद बने। 1980 के विधानसभा चुनाव में संताल परगना के 18 में से नौसीटों पर जेएमएम को जीत मिली। जेएमएम की जीत से बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव हुआ।
झारखंड अलग राज्य के आंदोलन को बनाया जनांदोलन
झारखंड अलग राज्य की मांग काफी पुरानी थी, लेकिन राजनीति में सक्रिय होने के बाद शिबू सोरेन ने इस आंदोलन को जनता का आंदोलन बना दिया। उनके आंदोलन की वजह से ही अलग राज्य का गठन हुआ, जो उनका सपना था। 1980 में जब वे जेएमएम के पहले सांसद बनकर संसद पहुंचे तो उन्होंने वहां आदिवासियों के मुद्दों को उठाना शुरू किया। आदिवासियों की संस्कृति, भाषा, जल-जंगल-जमीन पर उनके अधिकारों की बात की। अलग राज्य के आंदोलन के अलग दिशा दिया। उन्होंने अपने आंदोलन से सरकार पर इतना दबाव बनाया कि 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ।
टुंडी के लोगों को जागृत करने के बाद 1977 में संताल परगना शिफ्ट हो गये
शिबू सोरेन ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत धनबाद जिले के टुंडी से की थी। उन्होंने 70 के दशक में भूमिगत रहकर टुंडी में आदिवासियों को गोलबंद किया था। वहां के महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ संघर्ष छेड़ा था। इस आंदोलन को लोगों ने ‘धनकटनी आंदोलन’ का नाम दिया था। इसी आंदोलन में टुंडी के आदिवासियों ने शिबू सोरेन को ‘दिशोम गुरु’ का दर्जा दिया था।
टुंडी से हार गये चुनाव
चार फरवरी 1973 को धनबाद में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) का गठन हुआ। 1977 में शिबू सोरेन बतौर निर्दलीय उम्मीदवार टुंडी विधानसभा से चुनाव लड़े। टुंडी में दिशोम गुरु जनता पार्टी के सत्यनारायण दुदानी से पराजित हो गये। चुनाव हारने के बाद टुंडी से गिरिडीह होते हुए दिशोम गुरु संताल परगना पहुंचे। वहां के लोगों में राजनीतिक और सामाजिक चेतना जगाने में जुट गये।
गुरुजी ने दुमका से संताल में बनायी पैठ
वर्ष 1977 में गुरुजी दुमका पहुंचे और आदिवासियों के बीच अपनी पैठ बनायी। वर्ष 1980 में दुमका में कांग्रेस के दिग्गज नेता पृथ्वीचंद किस्कू को हराकर वह पहली बार लोकसभा पहुंचे थे। 
1984 में हार गये चुनाव
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वर्ष 1984 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में लहर थी। इस लहर में शिबू सोरेन को कांग्रेस के पृथ्वीचंद किस्कू ने उन्हें हरा दिया। पृथ्वीचंद किस्कू को इस बार 1,99,722 और शिबू सोरेन को 1,02,535 वोट मिले थे।
1985 में जामा विधानसभा सीट से जीते 
दुमका लोकसभा सीट पर मिली हार के बाद शिबू सोरेन वर्ष 1985 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में जामा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े और जीते। वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में शिबू सोरेन फिर दुमका से लड़े और कांग्रेस के पृथ्वीचंद किस्कू को हराया। इसके बाद दिशोम गुरु लगातार वर्ष 1991 और वर्ष 1996 में दुमका से लोकसभा का चुनाव जीते। शिबू वर्ष 1998 में भाजपा के बाबूलाल मरांडी से 13 हजार वोटों से हारे थे। वर्ष 2002 के लोकसभा उप चुनाव में शिबू ने दुमका सीट पर फिर से जीत दर्ज की। वर्ष 2004, 2009 और 2014 में भी गुरुजी दुमका से चुनाव जीते। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के सुनील सोरेन ने उन्हें मात दे दी।शिबू सोरेन का राजनीतिक सफर
दुमका से लोकसभा सदस्य- 1980,  1989, 1991, 1996, 2002, 2004, 2009 और 2014
राज्यसभा सांसद-  वर्ष 1998,  2002 और 2020
केंद्रीय कोयला मंत्री- वर्ष 2004 से 2006 के बीच
झारखंड के मुख्यमंत्री- वर्ष 2005 - दो मार्च 2005 से 12 मार्च 2005 तक, 27 अगस्त 2008 से 18 जनवरी 2009 एवं 30 दिसंबर 2009 से 31 मई 2010 तक
जैक के अध्यक्ष- वर्ष 1995
झामुमो के अध्यक्ष- वर्ष 1987 से 2025
झामुमो के संस्थापक संरक्षक- 2025तीन बार मुख्यमंत्री बने शिबू सोरेन

15 नवंबर, 2000 को बिहार से अलग करके झारखंड अलग राज्य बना। इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी थे, लेकिन गुरुजी ने इस राज्य की बागडोर तीन बार संभाली।