मुंबई: जॉन अब्राहम की निखिल अडवानी के निर्देशन में बनी देश प्रेम के जज्बे को दर्शाने वाली फिल्म बाटला हाउस को स्वतंत्रता दिवस पर 15 अगस्त को रिलीज हो रहा है.

मूवी रिव्यू: बाटला हाउस आर्टिटस्ट: जॉन अब्राहम,मृणाल ठाकुर,नोरा फतेही,रवि किशन डायरेक्टर: रवि किशन मूवी टाइप: Action,Thriller टाइम: दो घंटा 26 मिनट कहानी: दिल्ली में 13 सितंबर 2008 को हुए सीरियल बम धमाकों की जांच के सिलसिले में दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के अफसर के के (रवि किशन) और संजीव कुमार यादव (जॉन अब्राहम) अपनी टीम के साथ बाटला हाउस एल-18 नंबर की इमारत की तीसरी मंजिल पर पहुंचते हैं. वहां पर पुलिस की इंडियन मुजाहिदीन के संदिग्ध आतंकियों से इनकाउंटर होती है. इस इनकाउंटर में दो संदिग्धों की मौत हो जाती है और एक पुलिस अफसर के घायल होने के साथ-साथ मौत. एक संदिग्ध मौके से भाग निकलता है. इस एनकाउंटर के बाद देश भर में राजनीति और आरोप-प्रत्यारोपों का माहौल गरमा जाता है. विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और मानवाधिकार संगठनों द्वारा संजीव कुमार यादव की टीम पर बेकसूर स्टूडेंट्स को आतंकी बताकर फेक एनकाउंटर करने के गंभीर आरोप लगते हैं. इस सिलसिले में संजीव कुमार यादव को बाहरी राजनीति ही नहीं बल्कि डिपार्टमेंट की अंदरूनी चालों का भी सामना करना पड़ता है. वह पोस्ट ट्रॉमैटिक डिसॉर्डर जैसी मानसिक बीमारी से जूझता है. जांच को आगे बढ़ाने और खुद को निर्दोष साबित करने के सिलसिले में उसके हाथ बांध दिए जाते हैं. उसकी पत्नी नंदिता कुमार (मृणाल ठाकुर) उसका साथ देती है. कई गैलेंट्री अवॉर्ड्स से सम्मानित जांबाज और ईमानदार पुलिस अफसर अपनी व अपनी टीम को बेकसूर साबित कर पाता है? डिटेल जानने के लिए मूवी देखें. रिव्यू: डायरेक्टर निखिल अडवानी की फिल्म की खासियत यह है कि ये कई परतों के साथ आगे बढ़ती है. इस एनकाउंटर के बाद पैदा हुए तमाम दृष्टिकोणों को वे दर्शाने में कामयाब रहे हैं. इन परतों में पुलिस की जांबाजी, अपराधबोध, बेबसी, उसकी दागदार होती साख, पॉलिटिकल पार्टीज की राजनीति, मानवाधिकार संगठनों का आक्रोश, धार्मिक कट्टरता, मीडिया के प्रोजेक्शन और प्रेशर पर लगातार डिबेट होती है. फिल्म में कई तालियां पीटनेवाले डायलॉग्ज हैं. जैसे एक सीन में संजीव कुमार यादव कहता है 'एक टैरेरिस्ट को मारने के लिए सरकार जो रकम देती है, उससे ज्यादा तो एक ट्रैफिक पुलिस एक हफ्ते में कमा सकता है. मूवी की यह विशेषता है कि पुलिस को कहीं भी महिमामंडित नहीं किया गया है. पुलिस खुद अंडरडॉग है. जॉन द्वारा तुफैल बने आलोक पांडे को कुरान की आयत को समझाने वाले कुछ सीन बेहतरीन बन पड़े हैं. निखिल ने फिल्म में दिग्विजय सिंह, अरविंद केजरीवाल, अमर सिंह और एल के अडवानी जैसे नेताओं के रियल फुटेज का इस्तेमाल किया है. सौमिक मुखर्जी की सिनेमटोग्राफी बेहतरीन बन पड़ी है.डायरेक्टर ने फिल्म को बहुत ही रियलिस्टिक रखा है, जो कहीं-कहीं पर हेवी लगता है. फिल्म का क्लाइमेक्स और पुख्ता होना चाहिए था. पुलिस अफसर संजीव कुमार यादव के रूप में जॉन अब्राहम की परफॉर्मेंस को अब तक की उनकी बेस्ट परफॉर्मेंस है.उन्होंने संजीव कुमार जैसे पुलिस अफसर के रूप में उनके मानसिक द्वंद, अपराध बोध, बेबसी और जांबाजी को बहुत ही सहजता से दिखाया है. उन्होंने कहीं भी अपने किरदार को एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी हीरोइक नहीं होने दिया. मृणाल ने नंदिता को बखूबी निभाया है. रवि किशन के.के के रोल में असर छोड़ने में कामयाब रहे हैं. उनकी भूमिका को और विस्तार मिलना चाहिए था. डिफेंस लॉयर के रूप में राजेश शर्मा का काम याद रह जाता है. छोटे से रोल और 'साकी' जैसे आइटम सॉन्ग में नोरा फतेही जंचती हैं. तुफैल की भूमिका में आलोक पांडे ने अच्छा काम किया है. मनीष चौधरी, सहिदुर रेहमान, क्रांति प्रकाश झा जैसी सपॉर्टिंग कास्ट मजबूत रही है. तुलसी कुमार, नेहा कक्कड़ और बी प्राक का गाय हुआ गाना, 'साकी' रिलीज के साथ ही हिट हो गया था.